अब्दुल सत्तार सिलावट
''किसान की फसलों के अलावा देश में अन्य व्यापार, उद्योगों में भी आपदाएं, मंदी, अंतर्राष्ट्रीय बाजार की मार से, शेयर मार्केट के लुढ़कने से करोड़ों रूपये डूब जाते हैं। कपास या सूत के निर्यात बंद होने पर पाँच पाँच रूपया मीटर भाव टूटने से मिल मालिकों को करोड़ों का नुकसान हो जाता है। सट्टा बाजार के ऑनलाइन व्यापार में भी करोड़ों के घाटे आपने सुने होंगे, लेकिन कभी किसी मिल मालिक, शेयर बाजार के दलाल, एक्सपोर्टर को आत्महत्या करते नहीं सुना होगा, जबकि देश के बड़े उद्योगपतियों के पास राष्ट्रीय बैंकों के हजारों करोड़ के लोन डूबत खाते में न्यायालयों के मुकदमों में फंसे पड़े हैं, लेकिन गाँव का किसान दस-बीस हजार के कॉपरेटीव लोन या साहूकार की उधारी नहीं चुकाने पर समाज-परिवार को मुँह दिखाने लायक नहीं रहता है और आत्महत्या कर देता है। अब आप ही बताएं कौन खुद्दार है किसान या बैंकों का हजारों करोड़ लेकर बैठा उद्योगपति। समाज और सरकार किसान की खुद्दारी बचाने के लिए 100-100 रूपये के चैक देने बंद कर उसका वास्तविक नुकसान भुगतान करे। सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते की तरह किसान के लिए भी एक सम्मानजनक मासिक आय निर्धारित कर उसकी फसल का उचित मूल्य तय करे। तभी किसानों की आत्महत्याएं बंद होंगी अन्यथा किसान की मौत पर सरकारें भले ही शर्मिंदा ना हों, लेकिन भगवान जरूर शर्मसार हो जायेगा।''
भारत कृषि प्रधान देश है और आज देश के कौने-कौने में किसान आत्महत्याएं कर रहा है। हमारे प्रधानमंत्री फ्रांस, जर्मनी, कनाडा की विदेश यात्राओं के बाद राज्यों के मुख्य सचिवों से वीडियो कांफ्रेंसिंग कर प्रगति पूछ रहे हैं। संसद में भूमि अधिग्रहण बिल पर किसान के शोषण पर विपक्ष से शक्ति परीक्षण चल रहा है। हमारे राजस्थान में भी आठ माह बाद होने वाले रिसर्जेंट राजस्थान की तैयारी में मुख्यमंत्री के साथ मुख्य सचिव और प्रदेश को चलाने वाले मुख्य ब्यूरोक्रेट्स जापान से कलकत्ता तक नया निवेश लाने में व्यस्त हैं। उद्योगों के विकास के प्रयास प्रसंसनीय हैं, लेकिन प्रदेश का किसान ओलावृष्टी और बेमौसम की बरसात से बर्बाद होने के बाद विधानसभा से गाँव की चौपाल तक सरकारी सहायता की घोषणाओं की उम्मीद पर अपने घर खर्च से बेफिक्र होकर अपने खेतों में मवेशियों के लिए बची हुई घास निकालने में लगा था, लेकिन सरकारी मदद के नाम पर हजारों के नहीं 100-200 रूपये के चैक देखकर उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया और इसी सरकारी मदद के बाद किसान आत्महत्याएं कर रहा है या हार्ट अटैक से मर रहा है, हमारे किसी राजनेता को इसकी चिन्ता नहीं है!
राजस्थान के दौसा के किसान की दिल्ली में 'आप' के सम्मेलन में पेड़ से लटककर आत्महत्या की खबर राजस्थान में सत्ता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष के 'आवभगत' की तैयारियों में दबकर रह गई। भाजपा को अगले चार साल तक वोटों की जरूरत नहीं है इसलिए ग्रामीण, मजदूर, गरीब, किसान की चिन्ता से मुक्त नेता स्थाई साथी उद्योगपति, बिल्डर्स, ज्वैलर्स, एक्सपोर्टर्स के साथ 'गलबहियों' में उलझे हुए हैं। कुछ नेता अन्य प्रदेशों से राज्य में निवेशक लाने के प्रयासों में हवाई सफर कर रहे हैं। किसान के दर्द से सभी बेखबर। नेताओं और अफसरों को ऐसा लगता है कि राजस्थान में ओलावृष्टी से फसलें पिछले साल बर्बाद हुई थीं, जबकि दस दिन पहले तक विधानसभा में कुछ विधायक किसानों की बर्बादी पर राहत की माँग उठा लेते थे और सरकार भी हमदर्दी के आँसूओं के साथ मुफ्त बिजली, ब्याज मुक्त कर्ज जैसी घोषणाएं कर देती थीं, लेकिन अब किसान की बात करने की किसी को फुर्सत नहीं है।
आजादी के बाद से अब तक देश के राजनेताओं को संसद पहुँचाने एवं देश की तरक्की में कृषि करने वाला किसान 'रीढ़ की हड्डी' बनकर अपने घर-परिवार और स्वास्थ्य की 'आहुति' देता रहा है, लेकिन हमारी सरकारें ऑफिस के चपरासी को पन्द्रह हजार रूपया महीना दे देती है जबकि किसान मात्र तीन हजार रूपये मासिक आय ही ले पाता है अपनी फसलें बेचकर। किसान ओलावृष्टी से बर्बाद फसल पर सरकार से मदद मांगता है तब संसद में मंत्री नीतिन गडकरी भगवान पर भरोसा रखने की सलाह देते हैं और केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग देते वक्त देश की आर्थिक स्थिती सुधरने तक कर्मचारियों को भगवान पर भरोसा रखने की सलाह देने का साहस किसी मंत्री या प्रधानमंत्री में नहीं हैं।
देश का भाग्य विधाता किसान को जयपुर नगर निगम के सफाई कर्मचारी से भी कम आय पर गाँवों में लू के थपेड़ों और भट्टी सी सुलगती जमीन पर भरी दोपहरी में नरेगा में काम करने पर सभी 'कमीशन' काटने के बाद एक सौ रूपये हाथ में आते हैं और वह भी पूरे तीस दिन नहीं।
किसान की फसल आने के बाद मंडियों में सरकार न्यूनतम दर 1450 रूपये तय तो कर लेती है, लेकिन इस सरकारी दर पर उद्योगपति और मंडी का व्यापारी भी किसान से खरीद नहीं करता है और सरकार तो व्यापारियों के ईशारों पर किसान को सरकारी दर से कम पर बेचने को मजबूर कर ही देती है। इन हालात में किसान भगवान के अलावा किस से फरीयाद करे और किसान जब फरीयाद कर करके थक जाता है तो आत्महत्याओं का दौर शुरू हो जाता है।
हमारे देश में प्राकृतिक आपदा बारीश, ओलावृष्टी, बाढ़, अकाल में देश भर से समाजसेवी पीडि़तों की मदद के लिए दवाईयां, कपड़ा, जरूरी सामान लेकर चले जाते हैं। चाहे गुजरात का भूकम्प हो या बद्रीनाथ में बादल फटने की घटना हो, हाल के कश्मीर में भारी बारीश से बर्बादी। सभी में देश भर से ट्रकें भरकर नेताओं से, समाजसेवीयों से हरी झण्डी दिखाकर आपदा वाले क्षेत्रों में राहत भेजी जाती रही है, लेकिन आश्चर्य और दु:ख इस बात का है कि देश में कपास उगाने वाले क्षेत्रों में किसानों ने फसलों की बर्बादी पर 70 प्रतिशत से अधिक आत्महत्याएं की हैं और देश के किसी भी टेक्सटाइल मिल मालिकों या बड़े टेक्सटाइल घरानों में से किसी भी उद्योगपति ने कपास पैदा करने वाले किसानों की मदद के लिए आगे आकर राहत देने का प्रयास नहीं किया जिससे हमारे किसान देश के लिए शर्मनाक मौत से बच सकते थे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक महका राजस्थान के प्रधान सम्पादक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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